यह प्रश्न किसी भी जिज्ञासु के मन में उठ सकता है कि हमें ठीक-ठीक ऐसा क्या करना चाहिए ताकि वह जो परम है, जो परमेश्वर है, वह मेरे जीवन में घटित हो सके? सदगुरु इसका उत्तर देते हैं कि अध्यात्म भीगी बिल्लियों के लिए नहीं है, क्या तुम समझ रहे हो? तुम अपने जीवन में और कुछ भी नहीं कर सकते हो, लेकिन सोचते हो कि मैं आध्यात्मिक हो सकता हूँ, ऐसा नहीं है।
अगर तुम इस संसार के किसी भी काम को अपने हाथ में लेकर कर सकते हो, फिर तुम्हारे आध्यात्मिक होने की एक संभावना पैदा हो सकती है, अन्यथा नहीं। अगर तुम्हारे पास इस संसार के किसी भी काम को लेकर और अच्छी तरह से करने की शक्ति और साहस है, तब तुम संभवतः आध्यात्मिक हो सकते हो।
यह उन लोगों के लिए नहीं है, जो कुछ भी नहीं कर सकते। अभी, पूरे देश के मन में यही बैठा हुआ है, संभवतः पूरे संसार के मन में, कि वे निकम्मे और नालायक लोग, आध्यात्मिक लोग होते हैं, क्योंकि वे तथाकथित आध्यात्मिक लोग वैसे ही हो गए हैं। वे लोग जो किसी भी चीज को करने के लायक नहीं हैं, वे बस यही करते हैं कि एक गेरुआ वस्त्र पहन कर और किसी मंदिर के सामने बैठ जाते हैं; उनका जीवन सँवर जाता है।
यह अध्यात्म नहीं है, यह वर्दी पहनकर बस भीख माँगना है। अगर तुम्हें अपनी चेतना पर विजय प्राप्त करनी है, अगर तुम्हें अपनी चेतना के शिखर पर पहुँचना है, वहाँ एक भिखारी कभी नहीं पहुँच सकता।
दो तरह के भिखारी होते हैं। गौतम बुद्ध तथा उस स्तर के लोग उच्चतम श्रेणी के भिखारी हैं। दूसरे सभी निपट भिखारी हैं। मैं तो कहूँगा कि एक सड़क का भिखारी तथा राजगद्दी पर बैठा हुआ एक राजा, दोनों ही भिखारी हैं। वे निरन्तर बाहर से कुछ माँग रहे होते हैं। सड़क का भिखारी हो सकता है कि पैसा, भोजन या आय माँग रहा हो। राजा हो सकता है कि किसी दूसरे राज्य पर विजय, खुशी या कुछ इस तरह की अनर्गल चीजें माँग रहा हो।
क्या तुम देखते हो, हर व्यक्ति किसी न किसी चीज की भीख माँग रहा है?
गौतम बुद्ध ने केवल अपने भोजन के लिए भिक्षा माँगी, शेष चीजों के लिए वे आत्मनिर्भर थे। दूसरे सभी लोग, बस एक ही चीज के लिए भीख नहीं माँगते, अपना भोजन भीख में नहीं माँगते, बाकी सभी चीजों के लिए भीख माँगते हैं। उनका पूरा जीवन ही भीख माँगना है। केवल भोजन अर्जित करते हैं। लेकिन एक आध्यात्मिक व्यक्ति, केवल भोजन के लिए भिक्षा माँगता है, अन्य सभी चीजें अपने भीतर से अर्जित करता है।
जिस भी तरह से रहना तुम बेहतर मानते हो, उसी तरह से रहो। जिस भी तरह से रहने को तुम जीने का एक सशक्त ढंग मानते हो, उसी तरह से जिओ।
आध्यात्मिक होने का अर्थ है अपने भीतर एक सम्राट होना। होने का यही एकमात्र तरीका है। क्या होने का कोई दूसरा तरीका भी है? कोई व्यक्ति, चेतनापूर्वक, क्या ऐसा होने का चुनाव करेगा, जहाँ पर उसे कोई चीज किसी से या किसी और चीज से माँगनी पड़े? हो सकता है अपनी दयनीयता के कारण उसे माँगना पडे़, लेकिन क्या कोई चेतनापूर्वक ऐसा करने का चुनाव करेगा? क्या हरेक आदमी उस तरह से नहीं होना चाहेगा जहाँ पर वह सौ प्रतिशत अपने आप में हो? इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि तुम्हें पूर्णतः आत्म-निर्भर बनना है।
पारस्परिक-निर्भरता हमेशा होती है, लेकिन तुम्हारे भीतर सभी चीजें मौजूद हैं; तुम्हें बाहर नहीं खोजना है। यहाँ तक कि किसी व्यक्ति के साहचर्य की भी तुम्हें जरूरत नहीं है। अगर दूसरे व्यक्ति को इसकी जरूरत है, तो तुम उसे दे सकते हो, लेकिन अपने आप में, तुम्हें किसी व्यक्ति के साहचर्य की जरूरत नहीं है। इसका अर्थ यह है कि अब तुम अंदर से भिखारी नहीं रह गए हो। केवल बाहरी चीजों के लिए, हो सकता है कि तुम्हें बाहर संसार में जाना पडे़। यही परम मुक्ति है।
जैसा हम सोचते हैं, वैसा ही हम बन जाते हैं। जिसे भी तुम परम के रूप में मानते हो, स्वभावतः तुम्हारी सारी ऊर्जा उसी तरफ मुड़ जाती है। समाज में भिन्न-भिन्न तरह के लोग हैं, भिन्न-भिन्न तरह की मंडलियाँ हैं। पियक्कड़ों की मंडली में सबसे बड़ी चीज, एक खास मात्रा में पीने की क्षमता होती है। वे हमेशा इस संबंध में बात कर रहे होते हैं कि कौन ज्यादा पी सकता है। इसलिए स्वभावतः उनका पूरा जीवन उसी संबंध में होता है।